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वृ꣣त्र꣡स्य꣢ त्वा श्व꣣स꣢था꣣दी꣡ष꣢माणा꣣ वि꣡श्वे꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢जहु꣣र्ये꣡ सखा꣢꣯यः । म꣣रु꣡द्भि꣢रिन्द्र स꣣ख्यं꣡ ते꣢ अ꣣स्त्व꣢थे꣣मा꣢꣫ विश्वा꣣: पृ꣡त꣢ना जयासि ॥३२४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

वृत्रस्य त्वा श्वसथादीषमाणा विश्वे देवा अजहुर्ये सखायः । मरुद्भिरिन्द्र सख्यं ते अस्त्वथेमा विश्वा: पृतना जयासि ॥३२४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृ꣣त्र꣡स्य꣢ । त्वा꣣ । श्वस꣡था꣢त् । ई꣡ष꣢꣯माणाः । वि꣡श्वे꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣जहुः । ये꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । मरु꣡द्भिः꣢ । इ꣣न्द्र । सख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । ते꣣ । अस्तु । अ꣡थ꣢꣯ । इ꣣माः꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । पृ꣡त꣢꣯नाः । ज꣣यासि ॥३२४॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 324 | (कौथोम) 4 » 1 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 3 » 10 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह विषय वर्णित है कि इन्द्र वृत्र की सेनाओं को कैसे जीते।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। आन्तरिक देवासुरसंग्राम में अपने आत्मा को, जिसका साथ सबने छोड़ दिया है, अकेला देखकर कोई कह रहा है—(वृत्रस्य) तमोगुण के प्रधान हो जाने से उत्पन्न कामक्रोधादिरूप वृत्रासु्र की (श्वसथात्) फुंकार से (ईषमाणाः) भयभीत हो पलायन करती हुई (विश्वे देवाः) सब चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों ने (त्वा) तुझ आत्मा को (अजहुः) अकेला छोड़ दिया है, (ये) जो इन्द्रियाँ (सखायः) पहले तेरी मित्र बनी हुई थीं। हे (इन्द्र) जीवात्मन् (मरुद्भिः) प्राणों के साथ (ते) तेरी (सख्यम्) मित्रता (अस्तु) हो, (अथ) उसके अनन्तर, तू (इमाः) इन (विश्वाः) सब (पृतनाः) काम-क्रोध आदि शत्रुओं की सेनाओं को (जयासि) जीत ले ॥ इस प्रसंग में वृत्रवध के आख्यान में ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि—इन्द्र और उसके साथी वृत्र को मारने की इच्छा से दौड़े। उसने जान लिया कि ये मुझे मारने के लिए दौड़ रहे हैं। उसने सोचा इन्हें डरा दूँ । यह सोचकर उसने उनकी ओर साँस छोड़ी, फुंकार मारी। उसकी साँस या फुंकार से भयभीत हो सब देव भाग खड़े हुए। केवल मरुतों ने इन्द्र को नहीं छोड़ा। ‘भगवन् प्रहार करो, मारो, वीरता दिखाओ’—इस प्रकार वाणी बोलते हुए वे उसके साथ उपस्थित रहे। ॠषि इसी अर्थ का दर्शन करता हुआ कह रहा है—वृत्रस्य त्वा श्वसथादीषमाणाः आदि। ऐ० ब्रा० ३।२०। यह आख्यान उक्त अर्थ को ही स्पष्ट करने के लिए है ॥ छान्दोग्य उपनिषद् की एक कथा भी इस मन्त्र के भाव को स्पष्ट करती है। वहाँ लिखा है-देव और असुरों में लड़ाई ठन गयी, दोनों प्रजापति के पुत्र थे। देव उद्गीथ को ले आये कि इससे इन्हें परास्त कर देंगे। उन्होंने नासिक्य (नासिका से आने-जानेवाले) प्राण को उद्गीथरूप में उपासा। असुरों ने उसे पाप से बींध दिया। इसी कारण नासिक्य प्राण से सुगन्धित और दुर्गन्धित दोनों प्रकार के पदार्थ सूँघता है, यतः यह पाप से बिंध चुका है। इसके बाद उन्होंने वाणी को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण वाणी से सत्य और असत्य दोनों बोलता है, यतः यह पाप से बिंध चुकी है। इसके बाद उन्होंने आँख को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण आँख से दर्शनीय और अदर्शनीय दोनों को देखता है। यतः यह पाप से बिंध चुकी है। फिर उन्होंने श्रोत्र को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण श्रोत्र से श्रवणीय और अश्रवणीय दोनों सुनता है, यतः यह पाप से बिंध चुका है। तत्पश्चात् उन्होंने मन को उद्गीथरूप में उपासा। उसे भी असुरों ने पाप से बींध दिया। इसी कारण मन से उचित और अनुचित दोनों प्रकार के संकल्प करता है, यतः यह पाप से बिंध चुका है। तदनन्तर उन्होंने मुख्य प्राण को उद्गीथरूप में उपासा। असुर जब उसे भी बींधने के लिए झपटे तो वे उससे टकराकर ऐसे विध्वस्त हो गये, जैसे मिट्टी का ढेला पत्थर से टकराकर चूर-चूर हो जाता है। इस प्रकार जो मुख्य प्राण से साहचर्य कर लेता है उसके सब शत्रु ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे मिट्टी का ढेला पत्थर से टकराकर चूर हो जाता है। इस कथा से स्पष्ट है कि चक्षु-श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ आत्मा की सच्ची सहायक नहीं हैं, मुख्य प्राण की ही सहायता से वह काम, क्रोधादि असुरों को परास्त करने में सफल हो सकता है ॥ द्वितीय—राष्ट्र के पक्ष में। सग्रामों में जिसका प्रजाजनों ने साथ छोड़ दिया है, ऐसे अकेले पड़े हुए राजा को राजमन्त्री कह रहा है—(वृत्रस्य) अत्याचारी शत्रु के (श्वसथात्) विनाशक शस्त्रास्त्र-समूह से (ईषमाणाः) भयभीत हो भागते हुए (विश्वे देवाः) सब प्रजाजनों ने (त्वा) आपको (अजहुः) छोड़ दिया है, (ये) जो प्रजाजन, पहले जब युद्ध उपस्थित नहीं हुआ था तब (सखायः) आपके मित्र बने हुए थे। हे (इन्द्र) राजन् ! (मरुद्भिः) वीर क्षत्रिय योद्धाओं के साथ (ते) आपकी (सख्यम्) मित्रता (अस्तु) हो, (अथ) उसके पश्चात्, आप (इमाः) इन (विश्वाः) सब (पृतनाः) युद्ध करनेवाली शत्रु-सेनाओं को (जयासि) जीत लो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

युद्ध का समय उपस्थित होने पर युद्ध में निपुण शूरवीर क्षत्रिय योद्धा ही रिपुदल से मुठभेड़ कर सकते हैं। इसी प्रकार आन्तरिक देवासुर-संग्राम में प्राण आत्मा के सहायक बनते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रो वृत्रस्य सेनाः कथं जयेदित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—अध्यात्मपरः। देवासुरसंग्रामे स्वकीयमात्मानं विश्वैः परित्यक्तसख्यमेकाकिनं दृष्ट्वा ब्रूते—(वृत्रस्य) तमोगुणप्रधानतया जनितस्य कामक्रोधादिरूपस्य वृत्रासुरस्य (श्वसथात्) प्रश्वासात् फुंकारात्; प्राबल्यादित्यर्थः। श्वस प्राणने इति धातोर्बाहुलकादौणादिकः अथप्रत्ययः। (ईषमाणाः) भयात् पलायमानाः। ईषते भीतः पलायते। निरु० ४।२। (विश्वेदेवाः२) प्रकाशकानि सर्वाणि चक्षुःश्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि (त्वा) त्वां जीवात्मानम् (अजहुः) अत्यजन्, (ये) यानि इन्द्रियाणि, पूर्वं तव (सखायः) मित्रभूतानि आसन्। हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (मरुद्भिः) प्राणैः (ते) तव (सख्यम्) सखित्वम् (अस्तु) भवतु। (अथ) मरुद्भिः सख्यस्थापनानन्तरम्, त्वम् (इमाः) एताः पुरो दृश्यमानाः (विश्वाः) समस्ताः (पृतनाः) कामक्रोधादिरिपूणां सेनाः (जयासि) जय। जि जये धातोर्लेटि रूपम् ॥ अत्र वृत्रवधाख्याने ऐतरेयब्राह्मणमाह—तं हनिष्यन्त आद्रवन्। सोऽवेन्मां वै हनिष्यन्त आद्रवन्ति। हन्त इमान् भीषया इति। तानभि प्राश्वसीत्। तस्य श्वसथादीषमाणा। विश्वेदेवा अद्रवन्। मरुतो हैनं नाजहुः। प्रहर भगवो जहि वीरयस्व इत्येवैनमेतां वाचं वदन्त उपातिष्ठन्त। तदेतद् ऋषिः पश्यन्नभ्यनूवाच वृत्रस्य त्वा श्वसथादीषमाणा इति (ऐ० ब्रा० ३।२०) ॥ एतन्मन्त्रार्थं छान्दोग्योपनिषत्कथापि विवृणोति। तथाहि—“देवासुरा ह वै यत्र संयेतिरे, उभये प्राजापत्याः। तद्ध देवा उद्गीथमाजह्रुः अनेन एनान् अभिभविष्याम इति। ते ह नासिक्यं प्राणमुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे। ते हासुराः पाप्मना विविधुः, तस्मात् तेनोभयं जिघ्रति सुरभि च दुर्गन्धि च, पाप्मना ह्येष विद्धः। अथ ह वाचमुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे। तां हासुराः पाप्मना विविधुः। तस्मात् तया उभयं वदति सत्यं चानृतं च। पाप्मना ह्येषा विद्धा। अथ ह चक्षुरुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे। तद्धासुराः पाप्मना विविधुः। तस्मात् तेनोभयं पश्यति दर्शनीयं चादर्शनीयं च। पाप्मना ह्येतद् विद्धम्। अथ ह श्रोत्रमुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे। तद्धासुराः पाप्मना विविधुः। तस्मात् तेनोभयं शृणोति, श्रवणीयं चाश्रवणीयं च। पाप्मना ह्येतद् विद्धम्। अथ ह मन उद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे। तद्धासुराः पाप्मना विविधुः। तस्मात् तेनोभयं संकल्पयते, संकल्पनीयं चासंकल्पनीयं च। पाप्मना ह्येतद् विद्धम्। अथ य एवायं मुख्यः प्राणस्तमुद्गीथमुपासाञ्चक्रिरे। तं ह्यसुरा ऋत्वा विदध्वंसुः यथाश्मानमाखणम् ऋत्वा विध्वंसेत्। एवं यथाश्मानमाखणम् ऋत्वा विध्वंसते। एवं हैव स विध्वंसेत य एवंविदि पापं कामयते, यश्चैनमभिदासति। स एषोऽश्माखणः। छा० उ० १।२।१-८ इति। अनया कथया ज्ञायते यत् चक्षुःश्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि आत्मनो वस्तुतः सहायकानि न सन्ति, मुख्यस्य प्राणस्यैव साहाय्येन स कामक्रोधाद्यसुरान् पराजेतुं क्षमते ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रपरः। संग्रामे प्रजाजनैः परित्यक्तम् एकाकिनं राजानं राजमन्त्री ब्रूते—(वृत्रस्य) अत्याचारिणः शत्रोः (श्वसथात्) विनाशकात् शस्त्रास्त्रसमूहात्। श्वसितिः हन्तिकर्मा। निघं० २।१९। (ईषमाणाः) भयात् पलायमानाः (विश्वे देवाः) सर्वे प्रजाजनाः (त्वा) त्वां राजानम् (अजहुः) पर्यत्याक्षुः, (ये) प्रजाजनाः पूर्वं युद्धेऽनुपस्थिते (सखायः) तव मित्रभूताः अभूवन्। हे (इन्द्र) राजन् ! (मरुद्भिः) वीरैः क्षत्रियसैनिकैः (ते) तव (सख्यम्) सखित्वम् (अस्तु) भवतु, (अथ) तदनन्तरम्, त्वम् (इमाः) पुरतः उपस्थिताः (विश्वाः) सर्वाः (पृतनाः) सङ्ग्रामकारिणीः शत्रुसेनाः (जयासि) विजयस्व ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

उपस्थिते संङ्ग्रामकाले सङ्ग्रामकुशलाः शूराः क्षत्रिया योद्धार एव रिपुदलेन संघर्षं कर्तु पारयन्ति। तथैवाभ्यन्तरे देवासुरसंग्रामे प्राणा जीवात्मनः सहायका भवन्ति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९६।७, ऋषिः तिरश्चीराङ्गिरसः द्युतानो वा मारुतः। २. ‘नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्। य० ४०।४ अत्र देवशब्देन मनःषष्ठानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि गृह्यन्ते। तेषां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानां सत्यासत्ययोश्चार्थानां द्योतकत्वात् तान्यपि देवाः’ इति ऋ० भा० भूमिकायां वेदविषयविचारे दयानन्दः।